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पर्यावरण: परिभाषा, महत्व और संरक्षण की चुनौतियां

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पर्यावरण शब्द संस्कृत भाषा के 'परि' उपसर्ग और 'आवरण' से मिलकर बना है जिसका अर्थ है ऐसी चीजों का समुच्चय जो किसी व्यक्ति या जीवधारी को चारों ओर से आवृत्त किये हुए हैं। पारिस्थितिकी और भूगोल में यह शब्द अंग्रेजी के environment के पर्याय के रूप में इस्तेमाल होता है।अंग्रेजी शब्द environment स्वयं उपरोक्त पारिस्थितिकी के अर्थ में काफ़ी बाद में प्रयुक्त हुआ और यह शुरूआती दौर में आसपास की सामान्य दशाओं के लिये प्रयुक्त होता था। यह फ़्रांसीसी भाषा से उद्धृत है, जहाँ यह "state of being environed" (see environ + ment) के अर्थ में प्रयुक्त होता था और इसका पहला ज्ञात प्रयोग कार्लाईल द्वारा जर्मन शब्द Umgebung के अर्थ को फ्रांसीसी में व्यक्त करने के लिये हुआ।

पर्यावरण शब्द का निर्माण भी दो शब्दों से मिल कर हुआ है। "परि" जो हमारे चारों ओर है"आवरण" जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है, अर्थात पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ होता है चारों ओर से घेरे हुए। पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत एक इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन को तय करते हैं। पर्यावरण वह है जो कि प्रत्येक जीव के साथ जुड़ा हुआ है और चारों तरफ़ वह हमेशा व्याप्त होता है। सामान्य अर्थों में यह जीवन को प्रभावित करने वाले सभी जैविक और अजैविक तत्वों, तथ्यों, प्रक्रियाओं और घटनाओं के समुच्चय से निर्मित इकाई है। यह चारों ओर व्याप्त है और जीवन की प्रत्येक घटना इसी के अन्दर सम्पादित होती है तथा मनुष्य अपनी समस्त क्रियाओं से इस पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार एक जीवधारी और उसके पर्यावरण के बीच अन्योन्याश्रय संबंध भी होता है।

पर्यावरण के जैविक संघटकों में सूक्ष्म जीवाणु से लेकर कीड़े-मकोड़े, सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधे आ जाते हैं और इसके साथ ही उनसे जुड़ी सारी जैव क्रियाएँ और प्रक्रियाएँ भी। अजैविक संघटकों में जीवनरहित तत्व और उनसे जुड़ी प्रक्रियाएँ आती हैं, जैसे: चट्टानें, पर्वत, नदी, हवा और जलवायु के तत्व सहित कई चीजें रहती हैं। तकनीकी मानव द्वारा आर्थिक उद्देश्य और जीवन में विलासिता के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रकृति के साथ व्यापक छेड़छाड़ के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक पर्यावरण का संतुलन नष्ट किया है, जिससे प्राकृतिक व्यवस्था या प्रणाली के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न हो गया है। इस तरह की समस्याएँ पर्यावरणीय अवनयन कहलाती हैं। सामान्यतः पर्यावरण को मनुष्य के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है और मनुष्य को एक अलग इकाई और उसके चारों ओर व्याप्त अन्य समस्त चीजों को उसका पर्यावरण घोषित कर दिया जाता है। किन्तु यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि अभी भी इस धरती पर बहुत सी मानव सभ्यताएँ हैं, जो अपने को पर्यावरण से अलग नहीं मानतीं और उनकी नज़र में समस्त प्रकृति एक ही इकाई है।जिसका मनुष्य भी एक हिस्सा है। वस्तुतः मनुष्य को पर्यावरण से अलग मानने वाले वे हैं जो तकनीकी रूप से विकसित हैं और विज्ञान और तकनीक के व्यापक प्रयोग से अपनी प्राकृतिक दशाओं में काफ़ी बदलाव लाने में समर्थ हैं।

'प्रदूषण' पर्यावरण में दूषक पदार्थों के प्रवेश के कारण प्राकृतिक संतुलन में पैदा होने वाले दोष को कहते हैं। प्रदूषण पर्यावरण को और जीव-जन्तुओं को नुकसान पहुँचाते हैं। प्रदूषण का अर्थ है -'वायु, जल, मिट्टी आदि का अवांछित द्रव्यों से दूषित होना', जिसका सजीवों पर प्रत्यक्ष रूप से विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पारितन्त्र|पारिस्थितिक तन्त्र को नुकसान द्वारा अन्य अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते हैं। पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन इत्यादि मनुष्य को अपनी जीवनशैली के बारे में पुनर्विचार के लिये प्रेरित कर रही हैं और अब पर्यावरण संरक्षण और पर्यावरण प्रबंधन की चर्चा है।मनुष्य वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से अपने द्वारा किये गये परिवर्तनों से नुकसान को कितना कम करने में सक्षम है, आर्थिक और राजनैतिक हितों की टकराव में पर्यावरण पर कितना ध्यान दिया जा रहा है और मनुष्यता अपने पर्यावरण के प्रति कितनी जागरूक है, यह आज के ज्वलंत प्रश्न हैं।

पृथ्वी पर पाए जाने वाले भूमि, जल, वायु, पेड़ पौधे एवं जीव जंतुओं का समूह जो हमारे चारो और है। पर्यावरण के ये जैविक और अजैविक घटक आपस में अन्तक्रिया करते है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया एक तंत्र में स्थापित होती है जिसे पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में जानते हे। देश में पर्यावरण की कई समस्या है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कचरा, और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण भारत के लिए चुनौतियाँ हैं। पर्यावरण की समस्या की परिस्थिति 1947 से 1995 तक बहुत ही खराब थी। 1995 से 2010 के बीच विश्व बैंक के विशेषज्ञों के अध्ययन के अनुसार, अपने पर्यावरण के मुद्दों को संबोधित करने और अपने पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने में भारत दुनिया में सबसे तेजी से प्रगति कर रहा है। फिर भी, देश को विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के स्तर तक आने में और उस तरह के पर्यावरण की गुणवत्ता तक पहुँचने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना होगा।देश के लिए एक बड़ी चुनौती और अवसर है। उपग्रह चित्र उत्तर भारत में गंगा बेसिन के साथ मोटी धुँध और धुएँ की परत पर्यावरण की विभीषिका को दर्शाती है।बढ़ती जनसंख्या देश के पर्यावरण क्षरण का प्राथमिक कारण भी है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या व आर्थिक विकास और शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, बड़े पैमाने पर औद्योगीक विस्तार तथा तीव्रीकरण, तथा जंगलों का नष्ट होना इत्यादि देश में पर्यावरण संबंधी समस्याओं के कुछ प्रमुख कारण हैं।

अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि वर्ष 2050 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। देश का क्षेत्रफल दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4% है। परन्तु भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 17.5% है। जिसके कारण भारत का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। कई क्षेत्रों पर पानी की कमी, मिट्टी का कटाव और कमी, वनों की कटाई, वायु और जल प्रदूषण के कारण बुरा असर पड़ता है।

भारत की पर्यावरणीय समस्याओं में विभिन्न प्राकृतिक खतरे, विशेष रूप से चक्रवात और वार्षिक मानसून बाढ़, बढ़ती हुई व्यक्तिगत खपत, औद्योगीकरण, ढांचागत विकास, घटिया कृषि पद्धतियां और संसाधनों का असमान वितरण भी हैं और इनके कारण देश के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार खेती योग्य भूमि का 60% भूमि कटाव, जलभराव और लवणता से ग्रस्त है। यह भी अनुमान है कि मिट्टी की ऊपरी परत में से प्रतिवर्ष 4.7 से 12 अरब टन मिट्टी कटाव के कारण ख़त्म हो रही है।वर्ष 1947 से 2002 के बीच, पानी की औसत वार्षिक उपलब्धता प्रति व्यक्ति 70% कम होकर 1822 घन मीटर रह गयी है तथा भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश में एक समस्या का रूप ले चुका है। देश में वन क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्र का 18.34% (637,000 वर्ग किमी) है। देश भर के वनों के लगभग आधे मध्य प्रदेश (20.7%) और पूर्वोत्तर के सात प्रदेशों (25.7%) में पाए जाते हैं, इनमें से पूर्वोत्तर राज्यों के वन तेजी से नष्ट हो रहे हैं। वनों की कटाई ईंधन के लिए लकड़ी और कृषि भूमि के विस्तार के लिए हो रही है। यह प्रचलन औद्योगिक और मोटर वाहन प्रदूषण के साथ मिल कर वातावरण का तापमान बढ़ा देता है जिसकी वजह से बारिश का स्वरुप बदल जाता है और अकाल की आवृत्ति बढ़ जाती है।भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का अनुमान है कि तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि सालाना गेहूं की पैदावार में 15-20% तक की कमी कर देगी। एक ऐसे राष्ट्र के लिए, जिसकी आबादी का बहुत बड़ा भाग मूलभूत स्रोतों की उत्पादकता पर निर्भर रहता हो और जिसका आर्थिक विकास बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास पर निर्भर हो, ये बहुत बड़ी समस्याएँ हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहे नागरिक संघर्ष में प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दे शामिल हैं। देश में प्रदूषण का प्रमुख स्रोत ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत के रूप में पशुओं से सूखे कचरे के रूप में फ्युलवुड और बायोमास का बड़े पैमाने पर जलना, संगठित कचरा और कचरे को हटाने की कोई व्यवस्थित सेवाओं का अभाव, मलजल उपचार के संचालन की कमी, बाढ़ नियंत्रण और मानसून पानी की निकासी की सुचारू प्रणाली का अभाव , नदियों में उपभोक्ता कचरे की प्रचुर मात्रा , प्रमुख नदियों के पास दाह संस्कार करने की प्रथाओं की कोई व्यवस्थित प्रणाली की कमी, अत्यधिक पुरानी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इत्यादि प्रदूषण की कुछ कारण है जिनका उपाय और सुरक्षा आवश्यक है। शहर वाहनों और उद्योगों के उत्सर्जन से प्रदूषित होते हैं। सड़क पर वाहनों के कारण उड़ने वाली धूल भी वायु प्रदूषण में 33% तक का योगदान करती है।बंगलुरु जैसे सुव्यवस्थित शहर में भी लगभग 50% बच्चे अस्थमा से पीड़ित मिलते हैं कई विद्वानों का मत है की देश में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण लचर परिवहन व्यवस्था है।लाखों पुराने डीज़ल इंजन वह डीज़ल जला रहे हैं जिसमें यूरोपीय डीज़ल से 150 से 190 गुणा अधिक गंधक उपस्थित है। बेशक सबसे बड़ी समस्या बड़े शहरों में है जहां इन वाहनों का घनत्व बहुत अधिक है।सरकार इस बड़ी समस्या और लोगों से संबद्ध स्वास्थ्य जोखिमों को देखते हुए धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से हल करने के लिए कदम उठा रही है। पहली बार वर्ष 2001 में यह निर्णय लिया गया कि सम्पूर्ण सार्वजनिक यातायात प्रणाली, ट्रेनों को छोड़ कर, कंप्रेस्ड गैस (सी पी जी) पर चलने लायक बनायी जाएगी। विद्युत् चालित रिक्शा डिज़ाइन किया जा रहा है और सरकार द्वारा इसपर रियायत भी दी जाएगी। हालत तो यहाँ तक बिगड़े कि अत्यधिक प्रदूषण से ताजमहल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा। अदालतों द्वारा लेने के कारण इस क्षेत्र में सभी प्रकार के वाहनों पर रोक लगाये जाने के पश्चात इस इलाके की सभी औद्योगिक इकाइयों को भी बंद कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दिए गए मानक से लगभग 2.3 गुना तक अधिक प्रदूषण स्तर पहुँच चुका है।1980 के दशक के बाद से, भारत के सर्वोच्च न्यायालय समर्थक सक्रिय रूप से भारत के पर्यावरण के मुद्दों में लगा हुआ है।भारत के उच्चतम न्यायालय की व्याख्या और सीधे पर्यावरण न्यायशास्त्र में नए परिवर्तन शुरू करने में लगा हुआ है। न्यायालय के निर्देशों और निर्णय की एक श्रृंखला के माध्यम से मौजूदा वालों पर अतिरिक्त शक्तियां, पर्यावरण कानूनों को फिर से व्याख्या की है, पर्यावरण की रक्षा के लिए नए संस्थानों और संरचनाओं नए सिद्धांतों बनाया गया।पर्यावरण अब एक जरूरी सवाल ही नहीं बल्कि ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है लेकिन आज लोगों में इसे लेकर कम जागरूकता है। ग्रामीण समाज को छोड़ दें तो भी महानगरीय जीवन में इसके प्रति खास उत्सुकता नहीं पाई जाती। परिणामस्वरूप पर्यावरण सुरक्षा महज एक सरकारी एजेण्डा ही बन कर रह गया है। जबकि यह पूरे समाज से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाला सवाल है। जब तक इसके प्रति लोगों में एक स्वाभाविक लगाव पैदा नहीं होता, पर्यावरण संरक्षण एक दूर का सपना ही बना रहेगा।

परन्तु आज की आवश्यकता यह है कि पर्यावरण के विस्तृत अध्ययन के साथ-साथ इससे सम्बन्धित व्यावहारिक ज्ञान पर बल दिया जाए। आधुनिक समाज को पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं की शिक्षा व्यापक स्तर पर दी जानी चाहिए। साथ ही इससे निपटने के बचावकारी उपायों की जानकारी भी आवश्यक है। आज के मशीनी युग में ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं की प्रदूषण एक अभिशाप के रूप में सम्पूर्ण पर्यावरण को नष्ट करने के लिए सामने खड़ा है। सम्पूर्ण विश्व एक गम्भीर चुनौती के दौर से गुजर रहा है। वास्तव में पर्यावरण से सम्बद्ध उपलब्ध ज्ञान को व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि समस्या को जनमानस सहज रूप से समझ सके। ऐसी विषम परिस्थिति में समाज को उसके कर्त्तव्य तथा दायित्व का एहसास होना आवश्यक है। इस प्रकार समाज में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की जा सकती है। शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण का ज्ञान शिक्षा मानव-जीवन के बहुमुखी विकास का एक प्रबल साधन है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के अन्दर शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संस्कृतिक तथा आध्यात्मिक बुद्धी एवं परिपक्वता लाना है। शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक वातावरण का ज्ञान अति आवश्यक है। प्राकृतिक वातावरण के बारे में ज्ञानार्जन की परम्परा भारतीय संस्कृति में आरम्भ से ही रही है। परन्तु आज के भौतिकवादी युग में परिस्थितियाँ भिन्न होती जा रही हैं। एक ओर जहां विज्ञान एवं तकनीकी के विभिन्न क्षेत्रों में नए-नए अविष्कार हो रहे हैं। तो दूसरी ओर मानव परिवेश भी उसी गति से प्रभावित हो रहा है। आने वाली पीढ़ी को पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों का ज्ञान शिक्षा के माध्यम से होना आवश्यक है। पर्यावरण तथा शिक्षा के अन्तर्सम्बन्धों का ज्ञान हासिल करके कोई भी व्यक्ति इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में पर्यावरण का ज्ञान मानवीय सुरक्षा के लिए आवश्यक है।लोग अपने आस पास के आवरण को नष्ट करने के हर संभव प्रयास में लगे हुए है पर्यावरण की सुरक्षा तो सिर्फ दिमाग मे ही बंद हो कर रह गई है। नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण का अधिक से अधिक दोहन हो रहा है और इसका सीधा परिणाम यही निकल कर आ रहा है कि पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है जिससे कहीं सूखा कही अतिवृष्टि जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती जा रही है। जो जमीन कल तक उपजाऊ थी आज देखा जाए तो उसमें अच्छी फसल नही होती और ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय मे यह बंजर हो जाएगी।

माना जाता है कि पृथ्वी के वायुमण्डल का वर्तमान संघटन और इसमें ऑक्सीजन की वर्तमान मात्रा पृथ्वी पर जीवन होने का कारण ही नहीं अपितु परिणाम भी है। प्रकाश-संश्लेषण, जो एक जैविक या पारिस्थितिकीय अथवा जैवमण्डलीय प्रक्रिया है। पृथ्वी के वायुमण्डल के गठन को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया रही है।ज्यादातर पर्यावरणीय समस्याएँ पर्यावरणीय अवनयन और मानव जनसंख्या और मानव द्वारा संसाधनों के उपभोग में वृद्धि से जुड़ी हैं। पर्यावरणीय अवनयन के अंतर्गत पर्यावरण में होने वाले वे सारे परिवर्तन आते हैं जो अवांछनीय हैं।संसाधन न्यूनीकरण का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों का मनुष्य द्वारा अपने आर्थिक लाभ हेतु इतनी तेजी से दोहन जिस के कारण उनका प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्भरण न हो पाए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संसाधन क्षरण के लिये जनसंख्या के दबाव, तेज वृद्धि दर और लोगों के उपभोग प्रतिरूप का भी प्रभाव जिम्मेवार माना जा रहा है।
संसाधनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है - नवीकरणीय संसाधन और अनवीकरणीय संसाधन।
इसके अलावा कुछ संसाधन इतनी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं कि उनका क्षय नहीं हो सकता उन्हें अक्षय संसाधन कहते हैं जैसे सौर ऊर्जा। अनवीकरणीय संसाधनों का तेजी से दोहन होने के कारण उनके भण्डार को एक ना एक दिन समाप्त होना ही है जो मानव जीवन के लिये कठिन परिस्थितियां पैदा कर सकता है। कोयला, पेट्रोलियम, या धत्वित्क खनिजों के भण्डारों का निर्माण एक दीर्घ अवधि की घटना है और जिस तेजी से मनुष्य इन का दोहन कर रहा है ये एक न एक दिन समाप्त हो जायेंगे। वहीं दूसरी ओर कुछ नवीकरणीय संसाधन भी मनुष्य द्वारा इतनी तेजी से प्रयोग में लाये जा रहे हैं कि उनका प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्भरण उतनी तेजी से संभव नहीं और इस प्रकार वे भी अनवीकरणीय संसाधन की श्रेणी में आ जायेंगे।पर्यावरणीय विधि अथवा पर्यावरण विधि समेकित रूप से उन सभी अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय सन्धियों, समझौतों और संवैधानिक विधियों को कहा जाता है जो प्राकृतिक पर्यावरण पर मानव प्रभाव को कम करने और पर्यावरण की संधारणीयता बनाये रखने हेतु हैं।देश में पर्यावरण क़ानून पर्यावरण (रक्षा) अधिनियम 1986 से लागू है जो एक व्यापक विधान है। इसकी रूप रेखा केन्द्रीय सरकार के विभिन्न केन्द्रीय और राज्य प्राधिकरणों के क्रियाकलापों के समन्वयन के लिए तैयार किया गया है जिनकी स्थापना पिछले कानूनों के तहत की गई है जैसा कि जल अधिनियम और वायु अधिनियम।अन्य विधियों में भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 प्रमुख हैं।एक राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण का भी गठन किया गया है।हवा जीवन के लिये अनिवार्य स्त्रोत है। हर व्यक्ति को स्वस्थ रुप से जीने के लिये शुद्ध हवा की जरुरत होती है। इस नाते वायुमण्डल में इसका विशेष अनुपात होना आवश्यक है। प्रत्येक जीव साँस द्वारा आक्सीजन लिया जाता है और कार्बनडाई आक्साइड छोड़ा जाता है। पेड़-पौधे कार्बनडाई आक्सीजन लेते हैं और हमें आक्सीजन प्रदान करते हैं। इसी के कारण वायुमण्डल में शुद्धता बनी रहती है। परन्तु मनुष्य की अज्ञानता और स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण वृक्षों का अत्यधिक कटाव हो रहा है। इससे आक्सीजन का संतुलन बिगड़ रहा है। आज की वायु अनेक हानिकारक गैसों से प्रदूषित हो गयी है।

पृथ्वी का वातावरण स्तरीय है। पृथ्वी के नजदीक लगभग 50 किमी ऊँचाई पर स्ट्रेटोस्फीयर है जिसमें ओजोन स्तर होता है। यह स्तर सूर्य प्रकाश की पराबैगनी (UV) किरणों को शोषित कर उसे पृथ्वी तक पहुँचने से रोकता है। ओजोन परत, पृथ्वी के चारों ओर एक सुरक्षात्मक गैस की परत है। जो सूर्य से आनेवाली हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है। आज ओजोन स्तर का तेजी से विघटन हो रहा है, वातावरण में स्थित क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) गैस के कारण ओजोन स्तर का विघटन हो रहा है।यह सर्वप्रथम वर्ष 1980 में नोट किया गया की ओजोन स्तर का विघटन सम्पूर्ण पृथ्वी के चारों ओर हो रहा है। दक्षिण ध्रुव विस्तारों में ओजोन स्तर का विघटन 40%-50% हुआ है। ओजोन स्तर के घटने के कारण ध्रुवीय प्रदेशों पर जमा बर्फ पिघलने लगी है तथा मानव को अनेक प्रकार के चर्म रोगों का सामना करना पड़ रहा है।शायद ये रेफ्रिजरेटर और एयरकण्डीशनर में से उपयोग में होने वाले फ़्रियोन और क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFC) गैस के कारण उत्पन्न हो रही समस्या है। वायु प्रदूषण से सर्दियों में कोहरा छाया रहता है, इससे प्राकृतिक दृश्यता में कमी आती है तथा आँखों में जलन होती है। अनुवाशंकीय तथा त्वचा कैंसर के खतरे बढ़ जाते हैं, वायु प्रदूषण के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता है, क्योंकि सूर्य से आने वाली गर्मी के कारण पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन तथा नाइट्रस आक्साइड का प्रभाव कम नहीं होता है, जो कि हानिकारक है, वायु प्रदूषित क्षेत्रों में जब बरसात होती है तो वर्षा में विभिन्न प्रकार की गैसें एवं विषैले पदार्थ घुलकर धरती पर आ जाते हैं, जिसे 'अम्ल वर्षा' कहा जाता है!

पर्यावरण को नियंत्रित करने में व्यवसाय की तीन प्रकार की भूमिका हो सकती है : निवारणात्मक, उपचारात्मक तथा जागरूकता।पर्यावरण किसी जीव के आस-पास का वातावरण है। यह पर्यावरण जिसमें जीव रहता है, वायु, जल, भूमि आदि जैसे विभिन्न घटकों से बना है। ये घटक जीवों के रहने के लिए पर्यावरण में सामंजस्यपूर्ण संतुलन बनाने के लिए निश्चित अनुपात में पाए जाते हैं। इन घटकों के अनुपात में किसी भी तरह का अवांछनीय और वांछित परिवर्तन प्रदूषण कहलाता है। यह समस्या हर गुजरते साल के साथ बढ़ती जा रही है। यह एक ऐसी समस्या है जो आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से परेशान करती है। पर्यावरण की समस्या जो हर दिन बिगड़ती जा रही है, उसका समाधान किया जाना चाहिए ताकि मनुष्यों के साथ-साथ ग्रह पर इसके हानिकारक प्रभावों का निवारण किया जा सके। हरी-भरी दुनिया खतरे में है। अपनी आँखें खोलकर उन चुनौतियों से निपटना होगा जो स्वयं की ही देन है।औद्योगिक विकास ने पर्यावरण को बहुत प्रभावित किया है। अधिक सुविधा के लिए अधिक प्रदूषण उत्सर्जित हो रहे हैं। मानवीय क्रियाकलापों का पर्यावरण पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप, एक प्राणी और उसके परिवेश के बीच एक सहजीवी संबंध होता है। इन के कारण ही पर्यावरण बैलेंस बिगड़ रहा है जिनमे कुछ मुख्य हैं:

ग्लोबल वार्मिंग:

प्राकृतिक असंतुलन का सबसे प्रमुख लक्षण ग्लोबल वार्मिंग है। जब ग्रीनहाउस गैसें जमा होती हैं और तापमान में वृद्धि होती है, तो हम ग्रीनहाउस प्रभाव देखते हैं। इसका विश्व महासागर के स्तर में वृद्धि और आर्कटिक बर्फ के पिघलने पर प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों के अनुसार, तटीय देश और कुछ द्वीप कई दशकों में पानी से भर सकते हैं।

बढ़ती जनसंख्या:

आबादी बढ़ने के साथ ही भोजन और आवास की सभी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़्यादा जगह और संसाधनों की ज़रूरत होती है। चरागाहों और कृषि क्षेत्रों के लिए जगह बनाने के लिए पेड़ों को कटाई बढ़ गई।वन पृथ्वी के मुख्य फेफड़े और कई तरह के जानवरों, पक्षियों और कीड़ों के लिए प्राथमिक आवास के रूप में काम करते हैं। वनों की कटाई और मानवीय गतिविधियों ने बहुत सी वन प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है।

ओजोन परत क्षरण:

ओजोन परत का क्षरण एक जटिल मुद्दा है जिससे मानवता जूझ रही है। ओजोन परत यू वी विकिरण को अवशोषित करती है, जो मनुष्यों के लिए हानिकारक है। ओजोन छिद्र की संख्या बढ़ने से सौर विकिरण अधिक तीव्र होता है और त्वचा कैंसर में वृद्धि हो सकती है।

वनों की कटाई:

पौधे और पेड़ मानव जीवन के आवश्यक घटक हैं। पेड़ों से सभी को लाभ होता है क्योंकि वे हवा, भोजन और दवाइयाँ देते हैं। बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। गर्मियों के दौरान, प्राकृतिक जंगल की आग आम बात है। अधिकतम लाभ के लिए अनैतिक तरीके से पेड़ों को काटा भी जाता है।

निवारणात्मक भूमिका:

व्यावसायिक इकाइयों को पर्यावरण को हानि पहुँचने वाले कृत्यों से बचना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि व्यवसायी प्रदूषण नियंत्रण संबंधी सभी नियमों का पालन करें।मनुष्यों द्वारा किए जा रहे पर्यावरण प्रदूषण के नियंत्रण के लिए व्यावसायिक इकाइयों का प्रयास भी काफ़ी सराहनीय है।

उपचारात्मक भूमिका:

व्यावसायिक इकाइयाँ पर्यावरण के नुक़सान को सुधारने में सहायता प्रदान करने में हाथ बटायें। साथ ही यदि प्रदूषण को नियंत्रित करना संभव न हो तो उसके निवारण के लिए उपचारात्मक कदम उठा लेना चाहिए। वृक्षारोपण,वनरोपण कार्यक्रमद्ध से औद्योगिक इकाइयों के आसपास के वातावरण में वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता है।

जागरूकता:

पर्यावरण प्रदूषण के कारण तथा परिणामों के संबंध में जागरूकता जितनी होगी प्रदूषण उतना ही कम होने की संभावना रहेगी।पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की बजाय ऐच्छिक रूप से पर्यावरण की रक्षा कर सकेगें। जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन, कुछ शहरों में पार्कों के विकास तथा रखरखाव की जिम्मेदारियाँ भी उठाना एक उपाय हो सकता है। प्रदुषण एक प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दा बन गया है। यह स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन गया है। हाल के वर्षों में प्रदूषण की दर बहुत तेजी से बढ़ रही है।इसे गंभीरता से निपटने की जरूरत है अन्यथा आने वाली पीढ़ी बहुत ज्यादा परेशान रहेगी ।इसी जागरूकता के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व पर्यावरण दिवस, पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर जागरूकता लाने के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1972 में 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन से हुई। 5 जून 1973 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया।
पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने व उसके समुचित संरक्षण के लिये समस्त विश्व में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई है। वृक्षारोपण का कार्यक्रम सरकारी स्तर से पूरे जोर शोर से चलाया जा रहा है तथा वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोकने के लिये कठोर नियम बनाये जा रहे हैं। इस बात के भी प्रयास किये जा रहें है कि नये वन-क्षेत्र बनाये जायें और जनसामान्य को वृक्षारोपण के लिये प्रोत्साहित किया जाये। यदि सभी अपने ढंग से इन कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दे और यह संकल्प ले कि जीवन में आने वाले प्रत्येक शुभ अवसर पर कम से कम एक वृक्ष अवश्य लगाये तो निश्चित ही प्रदूषण के दुष्परिणामों से बच सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को भी इसकी काली छाया से बचाने में समर्थ हो सकेंगे।

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